भाषा का चूर्ण और अस्मिता का अफीम: जनता को बहलाने का नया राजनीतिक हथकंडा
भाषा और अस्मिता की आड़ में असली मुद्दों से भागती राजनीति: चुनावी मौसम में जनता को बहलाने की नई पटकथा
नई दिल्ली:
जैसे ही चुनावी मौसम दस्तक देता है, सत्ता में लंबे समय से जमे नेता जनता से बचने की अपनी पुरानी रणनीति निकाल लेते हैं — असली मुद्दों से ध्यान भटकाओ, और भावनाओं का चूर्ण हवा में घोल दो। इस बार यह चूर्ण है भाषा और अस्मिता का, जो देश के कुछ प्रमुख राज्यों में बड़ी चालाकी से परोसा जा रहा है।
विकास, रोजगार, महंगाई, महिला सुरक्षा, औद्योगिक निवेश जैसे जमीनी सवालों का जवाब देने के बजाय नेताओं ने जनता को भावनात्मक मुद्दों में उलझाना शुरू कर दिया है। जब जनता ने पूछा, “पिछले वर्षों में क्या बदला?” तब जवाब में रिपोर्ट कार्ड नहीं, बल्कि आरोप-प्रत्यारोप और भाषाई बहसें सामने आईं।
भाषा बनी राजनीति का मोहरा
भाषा, जो संवाद और समझ का माध्यम होती है, आज कुछ राजनेताओं के लिए चुनावी हथियार बन गई है। सांस्कृतिक गर्व के नाम पर स्थानीय बनाम बाहरी की बहस छेड़ दी गई है, जिससे विकास जैसे अहम विषय पीछे छूट गए हैं। ऐसा माहौल रचाया जा रहा है जहां भाषा और पहचान के नाम पर जनता को आपस में भिड़ा दिया जाए — ताकि सरकारों से सवाल पूछने की संस्कृति ही खत्म हो जाए।
जनता को भावनाओं की भट्टी में झोंकने की आदत
हर चुनाव से पहले जनता को भावनात्मक मुद्दों में उलझा देने की यह रणनीति अब लगभग एक परंपरा बन गई है। धर्म, जाति, क्षेत्रीयता और अब भाषा — इन सबके नाम पर जनता को बहकाया जाता है, जबकि उनकी असली जरूरतें जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, मूलभूत ढांचे का विकास — चर्चा से गायब रहते हैं।
राजनीति की ‘भाषाई रसोई’ में मुद्दों का अभाव
आज जब देश आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, वैश्विक साझेदारी और तकनीकी प्रगति की बात कर रहा है, तब कुछ राज्यों में नेता भाषाई अस्मिता की बांसुरी बजा रहे हैं। दुर्भाग्य यह है कि जनता भी इस धुन पर नाच रही है, बिना यह पूछे कि बिजली, पानी और सड़क का क्या हुआ?
विकास बनाम संकीर्णता: जनता के सामने दो रास्ते
भाषा सीखना और संस्कृति को अपनाना किसी भी नागरिक का दायित्व है, लेकिन जब इन्हीं चीज़ों का उपयोग किसी समुदाय को डराने, बाहर निकालने या नीचा दिखाने के लिए हो — तो यह संविधान और इंसानियत दोनों के खिलाफ है।
अब फैसला जनता को करना है — क्या वह बार-बार भावनाओं के बहाव में बहती रहेगी? या इस बार ठहरकर, सोचकर, और सवाल पूछकर अपने वोट का इस्तेमाल करेगी?
सवाल यही है:
क्या आप इस बार भी नेताओं के भाषाई चूर्ण से बहल जाएंगे? या इस बार मुद्दों की कसौटी पर कसेंगे?
क्योंकि अगर अब भी नहीं चेते, तो अगली बार फिर कोई नया अफीम लेकर आएगा — और आप उसी भीड़ में होंगे, जो तालियां तो बजाती है… पर जवाब नहीं मांगती।