O.P. Nayyar ने सिर्फ एक फिल्म में किया Lata Mangeshkar के साथ काम, इस वजह से खफा होकर तोड़ लिया था नाता
ओ.पी. नैयर की जयंती: जानिए क्यों लता मंगेशकर से दूरी बना ली थी इस मशहूर संगीतकार ने
पुराने दौर के हिंदी सिनेमा की बात हो और उसमें ओ.पी. नैयर का ज़िक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। ओमकार प्रसाद नैयर, जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री में ओ.पी. नैयर के नाम से जाना जाता है, अपने समय के सबसे हाइएस्ट पेड म्यूजिक डायरेक्टर्स में शुमार थे। उनके संगीत की खास बात ये थी कि उनके गानों में एक अनोखा रीदम और मेलोडी होती थी, जो आज भी सुनने वालों को सुकून देती है।
16 जनवरी को उनकी जयंती के अवसर पर हम आपको बताते हैं उनसे जुड़ा एक दिलचस्प और चर्चित किस्सा — लता मंगेशकर के साथ उनके रिश्ते का।
हालांकि लता मंगेशकर उस दौर की सबसे बड़ी गायिका थीं, लेकिन ओ.पी. नैयर ने उनके साथ सिर्फ एक फिल्म “आसमान” में काम किया और फिर कभी साथ नहीं आए। यह इंडस्ट्री के सबसे चौंकाने वाले फैसलों में गिना जाता है। कहा जाता है कि नैयर साहब लता की गायकी को लेकर कोई निजी मत रखते थे और इसी वजह से उन्होंने उनसे दूरी बना ली।
हालांकि इस बारे में दोनों ने कभी खुलकर बात नहीं की, लेकिन यह प्रोफेशनल दूरी बॉलीवुड के संगीत इतिहास में एक बड़ा उदाहरण बन गई। दिलचस्प बात यह है कि लता के बिना भी ओ.पी. नैयर ने आशा भोंसले, गीता दत्त और मोहम्मद रफ़ी जैसे कलाकारों के साथ मिलकर कई सदाबहार गाने रचे, जो आज भी लोगों की प्लेलिस्ट में जगह बनाए हुए हैं।
उनकी धुनें, खासकर “जब किसी की तरफ दिल झुकने लगे”, “इन्हीं लोगों ने”, “ये देश है वीर जवानों का” जैसी रचनाएं, आज भी सुनने वालों को पुराने ज़माने की उस सुनहरी दुनिया में ले जाती हैं।
ओ.पी. नैयर जयंती: लता मंगेशकर से अनबन, आशा भोसले से नजदीकी और अंत में अकेलापन — जानिए संगीत के इस बागी सितारे की अनसुनी कहानी
नई दिल्ली।
हिंदी सिनेमा के सबसे बेजोड़ और बागी संगीतकारों में शुमार ओ.पी. नैयर का संगीत भले ही हमेशा सजीव और तरोताज़ा रहा हो, लेकिन उनकी ज़िंदगी उतार-चढ़ावों और रिश्तों की तल्ख़ियों से भरी रही। 16 जनवरी, 1926 को अविभाजित भारत के लाहौर में जन्मे ओंकार प्रसाद नैयर, जिन्हें दुनिया ओ.पी. नैयर के नाम से जानती है, वो संगीतकार थे जिन्होंने परंपरा को तोड़ा, खुद की लकीर खींची और फिर उसी लकीर पर चला, जहां न लता मंगेशकर थीं और न ही कोई और स्थापित ‘सुर साम्राज्ञी’।
बिना औपचारिक शिक्षा, फिर भी सुरों के सम्राट
नैयर को शास्त्रीय संगीत की औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी, लेकिन जब वे हारमोनियम या तबला बजाते, तो जानकार भी चौंक जाते। 17 साल की उम्र में उन्होंने एचएमवी के लिए कबीर वाणी रिकॉर्ड की थी, जो ज्यादा पसंद नहीं हुई। फिर उन्होंने ‘प्रीतम आन मिलो’ नामक प्राइवेट एल्बम निकाली, जिसने उनकी किस्मत पलट दी। लेकिन तभी देश का विभाजन हुआ और नैयर को लाहौर छोड़ पटियाला जाना पड़ा, जहां उन्होंने संगीत शिक्षक के रूप में गुज़ारा किया।
मुंबई में संघर्ष और लता से विवाद
बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंचने के बाद उन्हें पहली बड़ी सफलता 1952 की फिल्म ‘आसमान’ से मिली। इसी फिल्म ने लता मंगेशकर के साथ उनके रिश्तों में दरार भी डाल दी। कहा जाता है कि एक रिकॉर्डिंग पर लता की अनुपस्थिति से नाराज़ होकर नैयर ने दो टूक कहा, “जो समय का पाबंद नहीं, वो मेरे लिए बेकार है।” जवाब में लता ने भी उन्हें संवेदनहीन बताया और इसके बाद दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया। यह हिंदी फिल्म संगीत का सबसे चर्चित अलगाव बन गया।
आशा भोसले से बढ़ती नजदीकियां
लता से दूरी के बाद नैयर ने गीता दत्त, शमशाद बेगम और विशेष रूप से आशा भोसले को अपना सुरसंगिनी बनाया। ‘आर-पार’, ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ और ‘नया दौर’ जैसी फिल्मों के ज़रिए उन्होंने अपनी एक अलग पहचान कायम की। ‘उड़े जब जब जुल्फें तेरी’ और ‘रेशमी सलवार’ जैसे गीतों ने उन्हें जन-जन का प्रिय बना दिया। आशा और नैयर की जोड़ी सिर्फ संगीत तक सीमित नहीं रही, बल्कि निजी जीवन में भी उनके रिश्ते सुर्खियों में रहे।
गीता दत्त और शमशाद की अनदेखी
जैसे-जैसे आशा भोसले की मौजूदगी नैयर के संगीत में बढ़ी, वैसे-वैसे गीता दत्त और शमशाद बेगम को दरकिनार किया गया। हालांकि बाद में ‘हावड़ा ब्रिज’ में गीता के गाए ‘मेरा नाम चिन चिन चू’ ने उन्हें फिर चर्चा में ला दिया।
चमकदार करियर, मगर अकेलापन भरा अंत
नैयर ने शम्मी कपूर को म्यूजिकल स्टार बनाने में भी अहम भूमिका निभाई। ‘तुमसा नहीं देखा’ के संगीत से शम्मी की छवि को चार चांद लग गए। वाद्य यंत्रों के साथ उनके प्रयोग, खासतौर से तबला, ढोलक और सेक्सोफोन, उन्हें दूसरों से अलग बनाते थे।
एक दौर ऐसा भी आया जब ओ.पी. नैयर सबसे अधिक फीस लेने वाले संगीतकार बन गए। लेकिन संगीत की दुनिया में बदलते स्वाद और निजी मतभेदों के कारण उन्हें धीरे-धीरे किनारे कर दिया गया। अंततः उन्हें अपना घर तक बेचना पड़ा। बावजूद इसके उन्होंने कभी समझौता नहीं किया और अपनी शर्तों पर ही जीवन जिया।
निष्कर्ष
ओ.पी. नैयर की कहानी सिर्फ संगीत की नहीं, बल्कि स्वाभिमान, विद्रोह, प्रेम और अकेलेपन की भी है। उनका संगीत आज भी जिंदा है — हर उस धुन में, जो रफ्तार, रोमांच और राग की सुंदर संगति को बयां करती है। उनकी जयंती पर ये याद करना जरूरी है कि नैयर सिर्फ संगीतकार नहीं, एक जुनून थे — जो ज़माने से नहीं, खुद से मुकाबला करते थे।